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Vedasar Shiv Stav Stotram in Hindi – वेदसार शिव स्तव: स्तोत्रम्

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Vedasar Shiv Stav Stotra was composed by Sri Adi Shankaracharya in praise of Lord Shiva. Get Sri Vedasar Shiv Stav Stotram Lyrics in Hindi Pdf with meaning here and chant it with devotion for the grace of Lord Shiva.

Vedasar Shiv Stav Stotram in Hindi – वेदसार शिव स्तव: स्तोत्रम् 

पशूनां पतिं पापनाशं परेशं
गजेन्द्रस्य कृत्तिं वसानं वरेण्यम्
जटाजूटमध्ये स्फुरद्गाङ्गवारिं
महादेवमेकं स्मरामि स्मरारिम् ॥१॥

अर्थ — जो सम्पूर्ण प्राणियों के रक्षक हैं, पापका ध्वंस करने वाले हैं, परमेश्वर हैं, गजराजका चर्म पहने हुए हैं तथा श्रेष्ठ हैं और जिनके जटाजूटमें श्रीगंगाजी खेल रही हैं, उन एकमात्र कामारि श्रीमहादेवजी का मैं स्मरण करता हुॅं ||1||

महेशं सुरेशं सुरारातिनाशं
विभुं विश्वनाथं विभूत्यङ्गभूषम्
विरूपाक्षमिन्द्वर्कवह्नित्रिनेत्रं
सदानन्दमीडे प्रभुं पञ्चवक्त्रम् ॥२॥

अर्थ — चन्द्र,सूर्य और अग्नि— तीनों जिनके नेत्र हैं, उन विरूपनयन महेश्वर, देवेश्वर, देवदु:खदलन, विभु, विश्वनाथ, विभूतिभूषण, नित्यानन्दस्वरूप, पंचमुख भगवान् महादेवकी मैं स्तुति करता हूॅं ||2||

गिरीशं गणेशं गले नीलवर्णं
गवेन्द्राधिरूढं गुणातीतरूपम्
भवं भास्वरं भस्मना भूषिताङ्गं
भवानीकलत्रं भजे पञ्चवक्त्रम् ॥३॥

अर्थ — जो कैलासनाथ हैं, गणनाथ हैं, नीलकण्ठ हैं, बैलपर चढ़े हुए हैं, अगणित रूपवाले हैं, संसारक आदिकारण हैं, प्रकाशस्वरूप हैं, शरीर में भस्म लगाये हुए हैं और श्री पार्वतीजी जिनकी अद्र्धागिंनी हैं, अन पंचमुख महादेवजी को मैं भजता हुॅं ||3||

शिवाकान्त शंभो शशाङ्कार्धमौले
महेशान शूलिञ्जटाजूटधारिन्
त्वमेको जगद्व्यापको विश्वरूपः
प्रसीद प्रसीद प्रभो पूर्णरूप ॥४॥

अर्थ — हे पार्वतीवल्लभ महादेव ! हे चन्द्रशेखर ! हे महेश्वर ! हे त्रिशूलिन ! हे जटाजूटधरिन्! हे विश्वरूप ! एकमात्र आप ही जगत् में व्यापक हैं। हे पूर्णरूप प्रभो ! प्रसन्न् होइये, प्रसन्न् होइये ||4||

परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं
निरीहं निराकारमोंकारवेद्यम्
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं
तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम् ॥५॥

अर्थ — जो परमात्मा हैं, एक हैं, जगत् के आदिकारण हैं, इच्छारहित हैं, निराकार हैं और प्राणवद्वारा जाननेयोग्य हैं तथा जिनसे सम्पूर्ण विश्व की उत्पत्ति और पालन होता है और फिर जिनमें उसका लय हो जाता है उन प्रभुको मैं भजता हूॅ ||5||

न भूमिर्नं चापो न वह्निर्न वायु-
र्न चाकाशमास्ते न तन्द्रा न निद्रा
न गृष्मो न शीतं न देशो न वेषो
न यस्यास्ति मूर्तिस्त्रिमूर्तिं तमीडे ॥६॥

अर्थ — जो ज पृथ्वी हैं, न जल हैं, न अग्नि हैं, न वायु हैं और न आकाश है; न तन्द्रा हैं, निन्द्रा हैं, न ग्रीष्म हैं और न शीत हैं तथा जिनका न कोई देश है, न वेष है, उन मूर्तिहीन त्रिमूर्ति की मैं स्तुति करता हूॅं ||6||

अजं शाश्वतं कारणं कारणानां
शिवं केवलं भासकं भासकानाम्
तुरीयं तमःपारमाद्यन्तहीनं
प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम् ॥७॥

अर्थ — जो अजन्मा हैं नित्य हैं, कारण के भी कारण हैं, कल्याणस्वरूप हैं, एक हैं प्रकाशकों के भी प्रकाशक हैं, अवस्थात्रय से विलक्षण हैं, अज्ञान से परे हैं, अनादि और अनन्त हैं, उन परमपावन अद्वैतस्वरूप को मैं प्रणाम करता हूॅं ||7||

नमस्ते नमस्ते विभो विश्वमूर्ते
नमस्ते नमस्ते चिदानन्दमूर्ते
नमस्ते नमस्ते तपोयोगगम्य
नमस्ते नमस्ते श्रुतिज्ञानगम्य ॥८॥

अर्थ — हे विश्वमूर्ते ! हे विभो ! आपको नमस्कार है। नमस्कार है हे चिदानन्दमूर्ते ! आपको नमस्कार हैं नमस्कार है। हे तप तथा योगसे प्राप्तव्य प्रभो ! आपको नमस्कार है, नमस्कार है। वेदवेद्य भगवन् ! आपको नमस्कार है, नमस्कार है ||8||

प्रभो शूलपाणे विभो विश्वनाथ
महादेव शंभो महेश त्रिनेत्र
शिवाकान्त शान्त स्मरारे पुरारे
त्वदन्यो वरेण्यो न मान्यो न गण्यः ॥९॥

अर्थ — हे प्रभो ! हे त्रिशूलपाणे ! हे विभो ! हे विश्वनाथ ! हे महादेव ! हे शम्भो ! हे महेश्वर ! हे त्रिनेत्र ! हे पार्वतीप्राणवल्लभ ! हे शान्त ! हे कामारे ! हे त्रपुरारे ! तुम्हारे अतिरिक्त न कोई श्रेष्ठ है, माननीय है और न गणनीय है ||9||

शंभो महेश करुणामय शूलपाणे
गौरीपते पशुपते पशुपाशनाशिन्
काशीपते करुणया जगदेतदेक-
स्त्वंहंसि पासि विदधासि महेश्वरोऽसि ॥१०॥

अर्थ — हे शम्भो ! हे महेश्वर ! हे करूणामय ! हे त्रिशूलिन् ! हे गौरीपते ! हे पशुपते ! हे पशुबन्धमोचन ! हे काशीश्वर ! एक तुम्हीं करूणावश इस जगत् की उत्पति, पालत और संहार करते हो; प्रभो ! तुम ही इसके एक मात्र स्वामी हो ||10||

त्वत्तो जगद्भवति देव भव स्मरारे
त्वय्येव तिष्ठति जगन्मृड विश्वनाथ
त्वय्येव गच्छति लयं जगदेतदीश
लिङ्गात्मके हर चराचरविश्वरूपिन् ॥११॥

अर्थ — हे देव ! हे शंकर ! हे कन्दर्पदलन ! हे शिव ! हे विश्वनाथ ! हे इश्वर ! हे हर ! हे हर ! हे चराचरजगद्रूप प्रभो ! यह लिंगस्वरूप समस्त जगत् तुम्हीं से उत्पन्न होता है, तुम्हीं में ​स्थित रहता है और तुम्हीं में लय हो जाता है ||11||

इति श्रीमत्परमहंस परिव्राजकाचार्य श्रीमच्छङ्कराचार्य विरचितं वेदसार शिव स्तोत्रम् सम्पूर्णम् ।

 

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